November 22, 2024

होली

पहले जैसा फ़ाग नहीं है,पहले जैसा रंग नहीं है।

पहले सा धूम धमाल नहीं पहले जैसा हुड़दंग नहीं है।

पहले जैसी त्योहारों के प्रति अब उल्लास उमंग नहीं।

सब इकदूजे के संग मगर दिखता कोई भी संग नहीं।

रंगने रंगवाने में पहले मित्रों से झगड़ा करते थे।

फिर अपने बदन और मुँह को उबटन से रगड़ा करते थे।

होली पर झब्बू काका की खटिया धर आया करते थे।

बदले में उतनी ही लकड़ी उनसे रखवाया करते थे।

दो बार साल में नए नए कपड़े सिलवाए जाते थे।

जूते मोजे बनियान और कच्छे दिलवाए जाते थे।

फिर बिरादरी रिश्तेदारी में हम मिलवाए जाते थे।

लेकिन सेहत की चिंता में मुँह भी किलवाए जाते थे।

क्रीज न बिगड़े कपड़ों की यह भी तो सोचा करते थे।

धूल लगी हो जूतों पर हाथों से पोछा करते थे।

हो पीछे कोई दाग नहीं देखा करते थे मुड़ मुड़ कर।

इक दूजे के सिर पर टीपें मारा करते थे उड़ उड़ कर।

केवल होली में ही तो हम,बच्चे पहचाने जाते थे।

पापा जाते होली मिलने,बच्चे तो खाने जाते थे।

है कौन भला किसका बेटा परिचय हो जाया करता था।

इसीलिए हमको होली त्योहार लुभाया करता था।

गुजिया पापड़ सेमी कचरी,सब मन को प्यारे होते थे।

लेकिन कम ही कम खाने के,कुछ मौन इशारे होते थे।

पहले पापा की नज़रों को फिर प्लेट निहारा करते थे।

कितना भी टोंका जाता पर हिम्मत ना हारा करते थे।

चुपके से मुट्ठी में कचरी, मीठे पारे भर लेते थे।

मौका मिलते ही झटके से मुँह के भीतर धर लेते थे।

होली वाले दिन घूम घूम खा खा कर पस्त हुआ करते।

फिर चार दिनों तक रुक रुक कर उल्टी औ दस्त हुआ करते।

पहले की होली क्या बोलें किस तरह मनाई जाती थी।

ढोलक मंजीर झांझ लेकर घर घर में गाई जाती थी।

शहरों गाँवों में प्रेम और सौहार्द्र दिखाई देते थे।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई दिल खोल बधाई देते थे।

बह गए आधुनिकता में हम हावी हमपर कुछ साल हुए।

पक्के रंग दुखदायक सुखकर अत्यंत अबीर गुलाल हुए।

मंहगाई ने कमर तोड़ रक्खी है अच्छे अच्छों की।

बहुत कठिन है पूरी करना फरमाइश अब बच्चों की।

अद्भुत

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