व्यापारियों की पीड़ा सरकार तक पहुंचाने वाले अन्नदाता की पीड़ा पर मौन क्यों ?
किसान को वर्ष में दो से तीन बार डी ए पी की जरूरत पड़ती है, चार से छह बार यूरिया की आवश्यकता होती है। डी ए पी और यूरिया का उत्पादन वर्ष भर होता है। फिर भी किसान को जब जब डी ए पी और यूरिया की आवश्यकता पड़ती है तभी किल्लत पैदा हो जाती है या पैदा कर दी जाती है। सरकार की ओर से बयान जारी किए जाते हैं कि यूरिया और डी ए पी की कोइ समस्या नहीं है।
यदि किसान को प्रतिदिन उर्वरक की आवश्यकता होती, सप्ताह में एक बार उर्वरक की आवश्यकता होती, माह में एक बार उर्वरक की आवश्यकता होती तब तो किसान दम ही तोड़ देता। यह सही है कि उर्वरक की देश में कोई कमी नहीं है, किंतु तंत्र की विफलता, जिम्मेदारों का जमाखोरों और बिचौलियो को संरक्षण के कारण कृत्रिम किल्लत पैदा कर किसानों को शोषित, अपमानित और तिरस्कृत होने को छोड़ दिया जाता है।
किसान अधिक मूल्य पर यूरिया खरीद रहा है, मिलावटी यूरिया खरीद रहा है, नकली यूरिया खरीद रहा है। विरोध करता है तो व्यापारी अपमानित करता है, उर्वरक देने से मना भी कर देता है। अपमानित होकर अधिक मूल्य देकर बेचारा किसान उर्वरक खरीदने को विवश रहता है।
किसान शिकायत करता है, उसकी शिकायत को सुने कौन, किसानों से संबंधित विभागों में अफसरों का टोटा है। ब्लाक स्तरीय अधिकारी नहीं, तहसील स्तरीय अधिकारी भी नहीं यहां तक कि मंडल स्तरीय अधिकारी भी नहीं है। एक एक अधिकारी तीन तीन प्रभार संभाल रहा है। जो अधिकारी हैं भी उन्हे विभागीय बैठकों, सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन से फुर्सत ही नहीं है, इसलिए किसान की कौन सुने।
जन प्रतिनिधि और राजनैतिक दलों के पदाधिकारी भी किसान की समस्या से परिचित नहीं है, यदि परिचित हैं तो उनका मौन समझ से परे है।
हां सरकार किसान की आमदनी दो गुना करने को संकल्पबद्ध है, बिना तंत्र के किसान की आमदनी दो गुनी कैसे होगी, यह विचारणीय विषय है।
किसान रोजाना लुट रहा है, अधिक मूल्य पर यूरिया खरीद रहा है, मिलावटी और नकली यूरिया खरीदने को विवश है, मीडिया द्वारा उसकी आवाज को उठाया भी जाता है, फिर भी सरकार जिस तरह से जी एस टी टीम के छापों के विरुद्ध व्यापारियों के दबाव में बैकफुट पर आई उस तरह किसानों के लिए उदार नहीं दिखी, शायद किसान व्यापारियों की तरह आवाज नही उठा पाए, हमेशा की तरह कराह कर रह गए।