JANDRASHTIउत्तर प्रदेश समाचाररचना

हे विधाता ! हूं जगत जननी मगर मजबूर हूं।

हे विधाता ! हूं जगत जननी मगर मजबूर हूं।

हूॅ परम  मैं पूज्य..पूजा से मगर मैं दूर हूॅ।

आरती  होती मेरी आघात और प्रतिघात से।

​हूं छली जाती हमेशा , मैं स्वयं की जात से।

​बाप से भी पूर्व  खुद  की माॅ मुझे है मारती ,

ये बड़ा इल्ज़ाम  सारी नारी शक्ति धारती।

है विवश वो मारने को, क्योंकि खुद मजबूर  है,

आ रही मंजिल निकट फिर भी  बहुत ही दूर है।

हो रही है क्रांति सारे विश्व में चहुं ओर से

आज मैं हूं बढ़ रही संक्रांति के दौर से

कर रही प्रतिमान स्थापित धारा पर प्रति दिशी

आ रही उजली किरण ढलती चली है अब निशी

बढ़ चली हूं अब धरा पर रोक कर देखे कोई

दवानल सी फैलती जाति है शक्ति जो सोई

मेरे इस आगाज को प्रतिघात सहने हैं कई

पर रुकूंगी न अभी अब चाहे जो होवे कभी

हे विधाता हाथ तेरा बस यूं ही सिर पर रहे

पद दलित अब ये मनुजता और न मुझको करे

पददलित अब ये मनुजता और न मुझको करे

                      निर्मला त्यागी,इंचार्ज प्रधानाध्यापक

                      कंपोजिट स्कूल लडपुरा ,,गौतमबुद्धनगर

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जन दृष्टि - व्यवस्था सुधार मिशन

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