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कहते है इंसान पैदा हुआ तब भी रोया…

अंतरराष्ट्रीय दिवस पर महिलाओं को समर्पित मेरी यह रचना। कविता:नारी व्यथा

कहते है इंसान पैदा हुआ तब भी रोया

लेकिन नारी ने सारी उम्र आंसुओं से दामन है भिगोया

एक बेटी,एक बहू,एक मां ने सबके सपनों को संजोया

इतना करने पर भी उसका दिल क्यों है रोया

मां की लाडली बापू के आंगन की चिड़िया

पढा लिखा कामयाबी की बुलंदी पर चढ़या

सयानी हुई मां बाप के अरमानों में शादी का जिक्र आया

अच्छा घर वर देख मेहंदी से हाथ रचाया

अच्छे संस्कारों के साथ बोली में बिठाया

मन में हसरतें लिए हुए ससुराल में पड़ बढाया

सबकी सेवा करते हुए मां बाप नाम नहीं डूबाया

कुछ महिनों बाद मां बनने के सौभाग्य पाया

मेरे गर्भ से भी एक नन्ही परी ने जन्म पाया

जो मैं नहीं कर पाई बेटी को कराने का प्रण उठाया

बेटी आगे न बढ़े हर किसी ने मुझ पर सितम ढाया

हर पीड़ा को सहते हुए बेटी को कामयाब कर दिखाया

कहते थे जिसे कुल का दीपक घर रोशन कर दिखाया

मां बाप की खटिया को घर से बाहर है फिकवाया

जिस लड़की को बोझ समझा उसी ने हाथ थमाया

इन सभी बातों के बीच ‘विजय’के मन में ख्याल आया

हम पुरुषों को दोष देते रहे,परन्तु औरत को ही औरत की दुश्मन पाया।

अंत में मैं यही कहूंगी……

हमें सकारात्मक सोच को अपनाना होगा

एक मां बेटी बहन बहू की इज्जत को वापस लाना होगा,

मां बाप के चरणों में हैं गंगा में समझाना होगा

जो खुद रहे हैं अनाथाश्रम उनको बंद कराना होगा।

स्वरचित विजयलक्ष्मी शिक्षिका

बहादुरगढ़ झज्जर हरियाणा

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जन दृष्टि - व्यवस्था सुधार मिशन

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