#आधुनिक नारी
वो सूर्य की उजली किरन,
अंधियारे को हरती गयी।
इकसीध सतपथ पे चली,
जय ध्वज लिए बढ़ती गयी।
अंकुश लगाए थे बहुत,
पग वेगवान न हों कभी।
मन शक्ति जो आँधी बनी,
गतिशील हो बहती गयी।
था दीप तल में घोर तम,
विस्तृत निराशा थी घनी।
वो दीप की लौ सप्त अश्व,
आरोह कर चलती गयी।
बुझ जाएगी भय से स्वयं,
ये सोच उसपे फेंका जल।
दृढ़ इच्छा हाइड्रोजन सी थी,
जो संलयित होती गयी।
पाए सदा पथरीले रस्ते,
काँटों भरे थे गर्त भी।
मृदुता की शुभ प्रेरणा से,
कुसुम हास हँसती गयी।
बहता रहा हर धमनी में,
लहु मान मर्यादा भरा।
धार शुभ कर्मों की दे,
तलवार तेज बनती गयी।
रोक कर विद्रोही अंतस,
बाँध बाँधा शिष्टता का।
कुछ झुकी और कुछ झुकाकर,
आधुनिक बनती गयी।
©दीप्ति सक्सेना
बदायूँ, उत्तरप्रदेश।